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बुधवार, 6 अगस्त 2014

कोर्ट में दिल्ली विधानसभा चुनाव

                                                                                   दिल्ली की जनता द्वारा पिछले विधान सभा चुनावों में किसी भी दल को सरकार चलने का स्पष्ट आदेश न देकर जिस तरह का माहौल बनाया था वह अब राजनैतिक स्तर से आगे बढ़कर कानूनी पचड़े में उलझता नज़र आ रहा है. आम आदमी पार्टी द्वारा जिस तरह से कोर्ट में दिल्ली विधान-सभा भंग कर फिर से जनादेश लेने के लिए केंद्र सरकार को निर्देशित करने के बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका कर रखी थी जिसका महत्व देखते हुए जिस तरह से कोर्ट ने पूरा मामला न्यायमूर्ति एच एल दत्तू की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ को संदर्भित कर दिया था. अब पीठ ने इस मामले में सुनवाई करने के बाद काफी कड़े शब्दों में केंद्र सरकार से जो सवाल पूछे हैं वे किसी भी राजनैतिक दल के लिए असहज करने वाले ही होते हैं क्योंकि कोर्ट की इस तरह की कड़ी टिप्पणियों का विरोधी सदैव ही राजनैतिक लाभ उठाने की फ़िराक़ में रहा करते हैं. कोर्ट ने केंद्र सरकार को एक तरह से केवल पांच सप्ताह की अवधि भी अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए दी है उससे भी सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.
                                                                       आज भी देश में अस्पष्ट जनादेश की स्थिति में केंद्र सरकार का क्या रुख होना चाहिए इस पर कोई स्पष्ट नीति नहीं है जिस कारण से भी हर दल संविधान की व्याख्या भी अपनी सुविधा के अनुसार ही किया करता है. जब १४ फरवरी को अरविन्द सरकार ने इस्तीफ़ा दिया था उसके बाद संप्रग सरकार ने विधान सभा को निलंबित रखने का निर्णय लिया था और आने वाले आम चुनावों के मद्दे नज़र इस बात का फैसला नयी लोकसभा के गठन के बाद बनने वाली सरकार के लिए छोड़ दिया था. आम तौर पर राजनैतिक रूप से वह निर्णय सही कहा जा सकता है पर यदि उस समय भाजपा ने केंद्र पर दबाव बनाया होता तो लोकसभा के साथ विधान सभा चुनाव दोबारा कराये जाने की स्थिति में शायद आज केंद्र के साथ दिल्ली में भी वह स्पष्ट बहुमत के साथ शासन कर रही होती ? पर उस समय सरकार बनने की संभावनाओं में उसने सोचा कि जब केंद्र में पार्टी की सरकार होगी तो दिल्ली में सरकार बनाना आसान भी हो जायेगा.
                                                               अब इस बारे में संविधान में व्यापक संशोधन की आवश्यकता है क्योंकि एक बार यदि अस्पष्ट जनादेश सामने आता है तो राज्यपाल या राष्ट्रपति के सामने क्या विकल्प होने चाहिए यह आज भी स्पष्ट नहीं है और अभी तक राज्यपाल केंद्रीय गृह मंत्रालय की मंशा के अनुरूप ही अपनी रिपोर्ट बनाते और प्रेषित करते रहे हैं. अब इस मसले को आने वाले समय में ख़त्म करने के लिए कुछ साझा सरकार जैसा भी किया जाना चाहिए क्योंकि जब जनादेश ही स्पष्ट नहीं है कि वह किसे चुने तो केंद्र सरकार या राज्यपाल इसे कैसे निर्धारित कर सकते हैं ? एक बार अस्पष्ट जनादेश की स्थिति में तीन महीने के अंदर ही दोबारा चुनाव कुछ शर्तों के साथ कराये जाने चाहिए जिसमें केवल पहले पांच स्थान पर आने वाले प्रत्याशियों को ही चुनाव लड़ने की अनुमति होनी चाहिए. दोबारा भी फैसला न हो पाने की स्थिति में संख्या बल के अनुसार हर दल से १०% विधायकों को मंत्री बनाकर साझा सरकार में न्यूनतम मुद्दों पर सहमति की घोषणा के साथ शामिल किया जाना चाहिए और सबसे बड़ी पार्टी के नेता को सीएम बनाया जाना चाहिए.       
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