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गुरुवार, 8 जनवरी 2015

शार्ली एब्दो और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

                                      पेरिस में फ़्रांस की प्रसिद्द और धार्मिक कट्टरपंथ के साथ मान्यताओं पर चोट करने वाली विवादित साप्ताहिक पत्रिका शार्ली एब्दो के कार्यालय पर जिस तरह से आतंकियों ने हमला किया और १२ लोगों को मार कई अन्य लोगों को घायल भी किया उसके बाद से विश्व भर में एक बार फिर से प्रेस पर आतंक की छाया के बारे में बहस शुरू होने वाली है. आज विकसित देश और समाज अपने को इन बातों से ऊपर दिखाने की कोशिशें किया करते हैं जिनमें वह किसी हद तक धार्मिक मान्यताओं पर भी कटाक्ष करने के साथ कला और अभिव्यक्ति की विभिन्न विधाओं को लेकर अपनी राय के अनुसार काम किया करते हैं. इनमें से समाज के काफ़ी हिस्से द्वारा इन्हें सराहा भी जाता है पर धार्मिक रूप से संवेदनशील मुद्दों पर इस तरह से कट्टरपंथियों को सदैव ही कुछ कहने का मुद्दा मिलता रहता है और इस पर व्यापक राजनीति भी होती ही रहती है.
                                     आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस हद तक दूसरे की धार्मिक निजता से अलग किया जा सकता है यह आज के इस सन्दर्भ में सोचने का विषय बन चुका है. शार्ली एब्दो द्वारा जिस तरह से इस्लाम, यहूदी और ईसाई धर्मों के खिलाफ इस तरह के कार्टून लगातार बनाये जा रहे थे तो उनसे उसका विरोध भी हो रहा था पर इस तरह के हमले होने के बाद अब फ़्रांस में भी मुसलमानों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर विद्वेष बढ़ने की पूरी सम्भावना है. कला और अभिव्यक्ति के नाम पर समाज में इस तरह का विभाजन किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं हो सकता है. आज भी यह बहस का बड़ा मुद्दा है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी में धार्मिक प्रतीकों या पूज्य लोगों के लिए कहाँ तक इसे स्वीकार किया जा सकता है ? यूरोपीय देशों में एक बार फिर से मुसलमानों के खिलाफ उसी तरह की परिस्थितियां सामने आ सकती हैं जो ९/११ के बाद पूरी दुनिया में आई थीं. यदि इस आतंकी हमले की धार्मिक आधार पर प्रतिक्रिया होती है तो इससे पूरी दुनिया में अलगावाद ही बढ़ने की पूरी सम्भावना है.
                                    आज जिन देशों में मुसलमान बहुत आराम से बिना किसी भेदभाव के रह रहे हैं वहां पर भी ये कट्टरपंथी समूह समाज में विभाजन पैदा करने की कोशिशें करने में लगे हुए हैं क्योंकि जब तक समाज में समरसता रहेगी उनको अपने काम को अंजाम देने में मुश्किलें ही आने वाली हैं. आज वे विवादित कार्टून पूरी दुनिया में फिर से फ़ैल गए हैं जिनको लेकर इस हमले की ज़िम्मेदारी लेने की बात की जा रही है. पहले इस पत्रिका के सीमित संस्करण के कारण ही आम लोगों को यह कार्टून दिखाई नहीं दिए थे पर अब खुलेआम नेट और सोशल मीडिया पर ये वायरल हो चुके हैं तो इस तरह से शांत पड़ चुके मुद्दे को इस आतंकी हमले के माध्यम से पुनः जीवित करने की कोशिशें भी की जा रही हैं. एक पत्रिका की आवाज़ को दबाने के लिए जिस तरह से यह कोशिश की गयी अब उसके वापस प्रतिक्रियात्मक रूप से लौटने की पूरी संभावनाएं भी है. अभिव्यक्ति की आज़ादी को आखिर किस तरह से कितनी आज़ादी तक स्वीकार्य माना जा सकता है यह बहस अभी बहुत लम्बी चलने वाली है पर यह पूरी दुनिया में एक नए तरह का अलगाव और संघर्ष पैदा करने की तरफ भी जा रही है.
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