मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 19 मार्च 2014

१९६२ का युद्ध और भारत

                                       आस्ट्रेलियाई पत्रकार नेवेल मैक्सवेल द्वारा १९६२ के युद्ध से सम्बंधित गोपनीय हैंडरसन-ब्रुक्स-भगत रिपोर्ट को जिस तरह से सार्वजनिक किया है उसके बाद भारत में अनावश्यक रूप से इसको लेकर आरोप प्रत्यारोपों का दौर शुरू होने वाला है क्योंकि चुनावी मौसम होने के कारण जिस तरह से रिपोर्ट का लाभ भाजपा द्वारा उठाये जाने की जितनी भी सम्भावनाएं होंगीं उससे वह चूकने वाली नहीं है और वह इस रिपोर्ट के बहाने भी कॉंग्रेस पर कोई हमला करने से नहीं चूकने वाली है. रिपोर्ट में जिस तरह से नेहरू को ज़िम्मेदार बताये जाने की बात सामने आ रही है वह भी अपने आप में कोई नयी बात नहीं है क्योंकि उस समय भारत पंचशील सिद्धांतों पर चीन के साथ अपने सम्बन्धों को मधुर ही मानता था पर जिस तरह से चीन ने दलाई लामा के भारत आने के बाद से भारत को अपनी विस्तारवादी नीतियों के कारण अपने निशाने पर लिया यह उसकी रणनीतिक मज़बूती ही अधिक थी क्योंकि आज़ादी के बाद से ही विकास के लिए हर तरह से प्रयासरत भारत के पास उस समय युद्ध जैसी बातों को सोचने का जज्बा ही पैदा नहीं हुआ था.
                                     हम भारतीय जिस तरह से अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह ही रहा करते हैं तो उससे आदि काल से हुए नुक्सान के बाद भी आज तक हमारे आचरण में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आ पाया है क्योंकि आज भी इस तरह की किसी भी परिस्थिति में उलझने पर हमारे पास करने के लिए कुछ ख़ास नहीं होता और हम अपने को बाद में ठगा सा महसूस करवाते रहते हैं. पंद्रह साल के अपरिपक्व लोकतंत्र भारत ने जिस तरह से बहुत सारी रणनीतिक चूकें अपने शुरुवाती दौर में की थीं उसके लिए किसी भी ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है वो नाम नेहरू से लगाकर कोई अन्य भी हो सकता है पर उस युद्ध के बाद से महत्वपूर्ण बात यह थी कि १९७१ में जब पाकिस्तान से युद्ध हुआ था तब तक भारत ने अपने को इतना मज़बूत का लिया था कि हिन्द महासागर में तैनात अमेरिकी नौसैनिक बेडा चाहते हुए भी पाकिस्तान की मदद करने के लिए भारत के खिलाफ नहीं आ पाया था ? ऐसा भी नहीं है कि हमारे पास साहस और शक्ति नहीं है पर इच्छा शक्ति की कमी हमें नीचा देखने पर मज़बूर करती है. क्या इस तरह की एक आया लापरवाही कारगिल युद्ध के पहले अटल सरकार ने भी नहीं की थी और पाकिस्तान से एक अघोषित युद्ध लड़ने पर हमारे सैनिकों को मजबूर होना पड़ा था ?
                                    देश में हर बात का राजनैतिक लाभ उठाने की प्रक्रिया को कहीं न कहीं रोकना ही होगा क्योंकि जब तक हमारे नेता इन मसलों पर राजनीति करना बंद नहीं करेंगें तब तक देश के लिए सही नीतियों का निर्धारण नहीं किया जा सकेगा. इस युद्ध की गोपनीय रिपोर्ट में यदि कुछ ऐसा जनता को बताये जाने लायक था तो बीच बीच में आयी गैर कॉंग्रेसी सरकारों ने उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया और अब चुनावी मौसम में आखिर इसका लाभ उठाने का प्रयास क्यों किया जा रहा है ? कॉंग्रेस ने जहाँ इस रिपोर्ट को आज भी गोपनीय माना है वहीँ अन्य दलों को सब कुछ पता होने के बाद भी इस पर राजनीति करने से नहीं चूक रहे हैं. यदि इस रिपोर्ट में वास्तव में कुछ लाभ मिलने की सम्भावना होती तो गैर कॉंग्रेसी दल इसको अपनी सरकार आने पर अवश्य ही सार्वजनिक कर देते पर उन्होंने तब ऐसा क्यों नहीं किया अब उनसे यह सवाल तो बनता ही है ? यहाँ पर बड़ा सवाल देश के आत्मसम्मान को बचाये रखने का है और हमारे नेता इस मसले पर एक जैसा ही व्यवहार किया करते हैं भले ही किसी भी दल से क्यों न आते हों जो कि देश के लिए के आज भी चिंता का विषय है क्योंकि सनसनी से कुछ वोट तो हासिल किये जा सकते हैं पर देश का भला नहीं किया जा सकता है.                                
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