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रविवार, 22 फ़रवरी 2015

भूमि अधिग्रहण कानून और विरोध

                                                              प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार ने उद्योगपतियों के साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को कामकाजी सरकार के रूप में दिखाने के चक्कर में जिस तरह से प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों की पूरी तरह से अनदेखी की थी यह उसका ही दुष्प्रभाव है कि गाँधीवादी समाज सेवी अन्ना हज़ारे ने इसके खिलाफ बाकायदा अनशन शुरू कर दिया है. इस बिल के प्रस्ताव करने के साथ ही आम किसानों की चिंताओं को किनारे किये जाने की आशंकाएं सामने आने लगी थीं पर संभवतः कमज़ोर विपक्ष के चलते मोदी सरकार को ऐसा आभास होने लगा था कि इस बिल को कानून बनाने में कोई अड़चन सामने नहीं आने वाली है पर यहीं पर उसने एक महत्वपूर्ण गलती कर दी थी जिससे उसके किसान विरोधी होने के एहसास जनता को होने लगा है. मोदी की कार्यशैली प्रारम्भ से एक तरफ़ा रहा करती है और यह गुजरात में काफी हद तक कामयाब भी रही पर उसी शैली को अपनाने में उनको दिल्ली में क्या कुछ झेलना पड़ सकता है यह सामने आने लगा है व्यापरिक हितों पर कृषि प्रधान देश के किसानों की अनदेखी कैसे संभव है यह मोदी भूल गए लगते हैं ?
                      अपने तानाशाही रवैये के चलते मोदी इसे कानूनी रूप देने में सफल भी हो सकते थे पर राज्यसभा में कांग्रेस के समर्थन के बिना कोई भी बिल आसानी से पारित नहीं हो सकता है जिस कारण से मोदी के लिए बड़ा संकट सामने आ गया है और कांग्रेस ने शुरू से ही इस बिल के कुछ प्रावधानों पर अपनी आपत्ति जता दी थी. भाजपा और मोदी की इस मामले में रणनीतिक चूक यही रही है कि खुद भाजपा ने पिछली लोकसभा में जिन मुद्दों पर बाकायदा विरोध कर संशोधन कराये थे वे अब इस नए बिल से गायब कर दिए गए हैं. कांग्रेस की तरफ से विरोध के चलते मोदी इन बिलों को संसद के संयुक्त अधिवेशन में पारित करा सकते हैं पर पूरे प्रकरण में भाजपा और मोदी की छवि किसान विरोधी बनने की पूरी सम्भावना भी है जो कि आज भाजपा नहीं चाहती है. पहले जम्मू कश्मीर में अपने मुद्दों से पीछे हटने, दिल्ली में अप्रत्याशित हार और बिहार में रणनीतिक चूक के बाद अब क्या भाजपा/ सरकार के शीर्ष नेतृत्व के रूप में शाह/ मोदी इस स्थिति में रह गए हैं कि वे किसी भी मसले पर उतनी मनमानी कर सकें जैसी अभी तक वे करते रहे हैं ? देश के विकास के लिए कानूनों में बदलाव होना चाहिए पर इतने मूलभूत परिवर्तन जो अंग्रेज़ों के ज़माने के हैं उनकी तरफ लौटने से आखिर देश को क्या हासिल हो सकता है ?
                              मोदी सरकार इन परिवर्तनों के बारे में कुछ भी नहीं सोचती यदि अन्ना ने इस मसले पर आंदोलन न शुरू किया होता और दिल्ली की तरफ कूच भी न किया होता ऐसे आंदोलनों से एकदम से कुछ असर नहीं पड़ता है पर जिस तरह से संघ के किसान मज़दूर संगठनों ने भी अन्ना के आंदोलन के साथ होने की घोषणा कर दी तो सरकार के लिए अपने कदम पीछे खींचना अपरिहार्य सा लगने लगा है. इस परिस्थिति केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की तरफ से किसान नेताओं से मिलने की पहल की गयी है और उनके मसलों पर गंभीरता से बात करने के लिए उन्हें समय भी दिया गया है तो यह एक अच्छा संकेत ही है. देश विकास करे पर किसानों की उर्वरा भूमि के दम पर क्या किसी भी औद्योगिक विकास का समर्थन किया जा सकता है यह सोचने का विषय है जिस पर मोदी सरकार ने कोई ध्यान ही नहीं दिया था. गुजरात और देश के अन्य क्षेत्रों में बहुत अंतर है क्योंकि गुजरात में विभिन्न कारणों से खाली पड़ी भूमि बहुत मात्रा में थी और उसके औद्योगिक उपयोग से किसी को कोई अंतर नहीं पड़ने वाला था पर जब पूरे देश की उपजाऊ भूमि के इस अराजक तरीके से अधिग्रहण के मंसूबे सरकार ने पाल रखें हों तो संगठनों और राजनैतिक दलों के सक्रिय होने से ही बात बनती है. देश हित में मोदी सरकार को अब राजनैतिक दृढ़ता के साथ संवेदनशील होने और निर्णय करने की ज़रुरत आ चुकी है.                 
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