मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 12 मई 2015

दवा बाज़ार और मूल्य नियंत्रण

                                                देश के तेज़ी से बढ़ते हुए दवा बाज़ार में लगातार मरीज़ों के लिए कुछ अच्छी ख़बरें भी समय समय पर आती रहती हैं पर उन ख़बरों का दवाओं के वास्तविक मूल्य पर क्या असर पड़ता है यह आज भी नहीं देखा जाता है. देश में दवाओं के मूल्यों को नियंत्रण में रखने के लिए एक नैशनल फार्मासूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) भी पूरी तरह से काम कर रही है पर इसके द्वारा लिए गए निर्णयों का दवा कंपनियां किस स्तर पर अनुपालन करती हैं यह आज भी चिंता का विषय है. देश में आम रोगों के लिए उपयोग में लायी जाने वाली बहुत सारी दवाओं के मूल्यों को नियंत्रित रखने के लिए इस संस्था द्वारा समय समय पर आदेश जारी किये जाते हैं जिनके चलते दवाओं के अधिकतम खुदरा मूल्य को एक सीमा में रखने के लिए कम्पनियों को बाध्य होना पड़ता है जो कि आज भी देश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति को देखते हुए पूरी तरह से सही नीति कही जा सकती है पर इस संस्था के द्वारा लिए गए निर्णयों पर कम्पनियों द्वारा अलग तरह से जो मनमानी की जाती है उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है जिससे भी इस तरह से मूल्य नियंत्रण के प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं हो पाते हैं.
                                            उदाहरण के तौर पर किसी दवा का अधिकतम मूल्य यदि पहले के मुक़ब्ले काफी कम कर दिया जाता है तो दवा कम्पनी उसके साथ मिलायी जा सकने वाले किसी अन्य औषधि को इसमें डालकर अपने को इस मूल्य नियंत्रण के चंगुल से बहुत आसानी से बचा लेती है क्योंकि मूल्य नियंत्रण केवल दवा के रासायनिक नाम पर होता है पर जब उसमें कोई अन्य दवा डाल दी जाती है तो उस पर यह कानून लागू नहीं होता है जिससे कम्पनियों को एक बार फिर से इस तरह की मनमानी करने की छूट मिल जाया करती है. इस तरह के मामलों में सरकार का उचित मूल्य पर आवश्यक दवाओं को आमलोगों तक उपलब्ध करने का मंतव्य भी पूरा नहीं हो पाता है जिससे निपटने के लिए भी आज कारगर योजना बनाये जाने की आवश्यकता भी महसूस होने लगी है क्योंकि पहले यह माना गया था कि इस संस्था के आदेश पर दवा कंपनियां मूल्यों को नियंत्रित करने की योजना में भागीदारी करने को राज़ी हो जायेंगीं पर शुद्ध व्यावसायिक कारणों से चलायी जाने वाली कम्पनियों के प्रबंधन को यह सब रास नहीं आने वाली बातें ही थीं और उन्होंने इसका तोड़ भी निकाल लिया है.
                                             अब दवा कम्पनियों की इस तरह की गतिविधियों को देखते हुए सरकार को नियमों में इस तरह के संशोधन के बारे में भी सोचना चाहिए कि किसी कम्पनी द्वारा यदि पहले किसी रासायनिक नाम से कोई दवा बनायीं जाती थी तो उस पर मूल्य नियंत्रण लागू होने के बाद कम्पनी उसे बंद नहीं कर सकती है और यदि किन्हीं विशेष परिस्थितियों में कम्पनी उस दवा को बंद ही करना चाहती है तो भविष्य में कुछ वर्षों तक उसके द्वारा नए नामों के पंजीकरण पर रोक लगायी जानी चाहिए जिससे वे सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों से बाहर न जा सकें और सरकार तथा अपने सामाजिक सरोकारों को समझने के लिए मजबूर हो सकें. अभी कम्पनियों पर इस तरह की दवा को बंद करने के लिए छह माह पूर्व सूचना देने की बाध्यता लगायी जा रही है जिससे भी कोई विशेष लाभ नहीं मिलने वाला है क्योंकि मूल्य नियंत्रण लागू होने के बाद कम्पनी उस दवा का उत्पादन काफी हद तक घटा भी सकती है. इस तरह के मामलों से निपटने के लिए सरकार के पास और कितने विकल्प भी उपलब्ध हैं उन पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि जब तक इन महत्वपूर्ण मामलों में सरकार की तरफ से कड़े नियमों को नहीं बनाया जायेगा तब तक दवा कंपनियां अपनी मनमानी करते हुए इसी तरह से कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र ही रहने वाली हैं.                  
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